देहरादून:नवरात्रों के दिन देवी मां की आरती और कंजक के साथ ही गरबा का नाम सबसे पहले लिया जाता है। गरबा अब सिर्फ गुजरात तक सीमित नहीं रहा बल्कि पूरे देश और विदेशों में इसे बड़े स्तर पर खेला जा रहा है। उत्तराखंड में भी इन दिनों गरबा कार्यक्रमों की धूम है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या यह आयोजन माता रानी के प्रति आस्था से जुड़े हैं या फिर यह सिर्फ मस्ती, दिखावे और नशे का एक नया ट्रेंड बन गया है?
उत्तराखंड की संस्कृति का हिस्सा नहीं है गरबा
देवभूमि उत्तराखंड की अपनी धार्मिक परंपराएँ और संस्कृति हैं, लेकिन गरबा इनमें शामिल नहीं है। यहां गरबा का कोई पारंपरिक इतिहास या धार्मिक मान्यता नहीं रही। बावजूद इसके, आजकल बड़े इवेंट्स कराकर इसे एक फैशन की तरह मनाया जा रहा है।
मंदिरों से ज्यादा भीड़ गरबा कार्यक्रमों में
नवरात्रों के दौरान जहां माता रानी के पंडालों में पूजा-अर्चना के लिए मुश्किल से 500 लोग पहुंचते हैं, वहीं गरबा कार्यक्रमों में 5,000 से ज्यादा लोग उमड़ रहे हैं। स्थिति यह है कि लोग मंदिर में 100 रुपये का चढ़ावा देने से कतराते हैं, लेकिन गरबा इवेंट्स में 500 से 800 रुपये तक टिकट देकर एंट्री करने से नहीं हिचकिचाते।
आयोजनों पर उठ रहे सवाल
देहरादून और आसपास लगातार हो रहे इन कार्यक्रमों पर कई सवाल खड़े हो रहे हैं, आयोजक अक्सर शर्त रखते हैं कि बिना पार्टनर के एंट्री नहीं मिलेगी।माता रानी के नाम पर हो रहे इन आयोजनों में शराब परोसी जा रही है।धार्मिक गीतों की जगह अश्लील और डीजे पर फिल्मी गाने बजाए जा रहे हैं।
लोगों का कहना है कि गरबा माता रानी की भक्ति का प्रतीक है, लेकिन उत्तराखंड में यह धीरे-धीरे सिर्फ मौज-मस्ती और अय्याशी का अड्डा बनता जा रहा है। प्रशासन भी इन आयोजनों पर किसी सख्त नियम या कार्रवाई करता हुआ नहीं दिख रहा है।
युवाओं की मानसिकता पर चिंता
युवा पीढ़ी अब गरबा को सिर्फ मस्ती का साधन मानकर इसका असली स्वरूप भूलती जा रही है। आस्था और संस्कृति की जगह अब शराब और पार्टनर कल्चर हावी हो रहा है। यही मानसिकता आने वाले समय में हमारी परंपराओं के लिए खतरा साबित हो सकती है।





