रुद्रप्रयाग: उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले से एक बड़ी खबर सामने आई है, जहां अमर उजाला के जिला प्रभारी सहित ब्लॉक और तहसील स्तर के करीब आधा दर्जन ग्रामीण पत्रकारों ने सामूहिक इस्तीफा दे दिया है। यह इस्तीफा उस सिस्टम के खिलाफ है, जिसमें पत्रकारों पर तो काम का बोझ लगातार बढ़ाया जा रहा है, लेकिन वेतन के नाम पर उन्हें मनरेगा के मजदूरों से भी कम मानदेय दिया जाता है।
जानकारी के अनुसार, अमर उजाला जिला प्रभारी को करीब 17 से 21 हजार रुपये तक वेतन देता है, जबकि तहसील या ब्लॉक स्तर पर कार्यरत स्ट्रिंगर पत्रकारों को केवल 500 से 1000 रुपये तक का मासिक मानदेय दिया जाता है। देहरादून जैसे महंगे शहर में यह रकम तीन दिन की सब्जी तक के लिए भी पर्याप्त नहीं है। पत्रकारों का आरोप है कि मुख्यालय और संपादक मंडल उन्हें समाचार, वीडियो, डेली कंपेरेजेशन, अप्रेजल रिपोर्ट, और विज्ञापन टारगेट जैसे कार्यों में झोंक देता है, लेकिन वेतन वृद्धि या सम्मानजनक पारिश्रमिक की कोई गुंजाइश नहीं रहती।
पत्रकारों ने कहा कि “अमर उजाला” जैसे बड़े मीडिया हाउस को सरकार से औसतन दो से पांच करोड़ रुपये सालाना विज्ञापन प्राप्त होते हैं, फिर भी लाला वेतन बढ़ाने को तैयार नहीं। उल्टा, कोविड काल में कई पत्रकारों को ठेके पर रखकर उनकी सैलरी घटा दी गई। वहीं संपादकों और प्रबंधकों पर “तानाशाही रवैये” और “भेदभावपूर्ण व्यवहार” के भी आरोप लगाए गए हैं।
पत्रकारों ने व्यंग्य करते हुए कहा कि “संपादक के नखरे किसी प्रेमिका से कम नहीं, लेकिन वेतन बढ़ाने की बात पर सबको सांप सूंघ जाता है।” रुद्रप्रयाग के एक पत्रकार ने तो यहां तक कहा — “ये ले अपनी लकुटि-कमरिया, बहुतै नाच नचायो।”
वरिष्ठ पत्रकारों का कहना है कि ग्रामीण पत्रकारों की स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। न उनके पास संसाधन हैं, न सुरक्षा। उन्हें कई बार खतरनाक पहाड़ी रास्तों से गुजरना पड़ता है, लेकिन उनके जोखिम का कोई मोल नहीं चुकाया जाता। हाल ही में उत्तरकाशी में डीडी न्यूज के संवाददाता दिग्बीर बिष्ट का कवरेज से लौटते वक्त एक्सीडेंट हुआ था, जो पत्रकारों के काम के खतरे को स्पष्ट करता है।
पत्रकार संगठनों ने इस सामूहिक इस्तीफे को पहाड़ी पत्रकारिता की “चेतावनी घंटी” बताया है। उनका कहना है कि अगर बड़े मीडिया संस्थान अब भी नहीं चेते, तो आने वाले दिनों में ग्रामीण पत्रकारिता पूरी तरह दम तोड़ देगी।





